प्याज़ के आंसू: 800 की उम्मीद, 200 में नीलामी ,ये है अन्नदाता की हकीकत

 


कृषि प्रधान देश में किसानों की यह हालत और हम दावा करते हैं दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का।"



ऐसी ही कड़वी सच्चाई का सामना एक बार फिर तब हुआ, जब किसान प्याज़ की बोरियाँ लेकर मंडी पहुँचे। उन्हें उम्मीद थी कि इस बार 800 से 1000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिलेगा। लेकिन मंडी पहुँचे तो पता चला — बोली 200 रुपये प्रति क्विंटल से शुरू होगी।

किसानों की टूटी उम्मीदें

सुबह-सुबह तसले, ट्रैक्टर और बैलगाड़ी में प्याज़ भरकर निकले थे। मन में उम्मीद थी कि लागत का थोड़ा तो लाभ मिलेगा। लेकिन जैसे ही मंडी में नीलामी शुरू हुई, किसानों के चेहरे की चमक गायब हो गई। प्याज़ की शुरुआती बोली — मात्र 200 रुपये प्रति क्विंटल

एक किसान की प्रतिक्रिया:
"हमने प्याज़ को खेत से निकालने, सुखाने, बोरी में भरने, ट्रैक्टर में लादकर लाने में जो खर्च किया, वह भी नहीं निकलेगा। ऊपर से मेहनताना अलग। इतना तो मज़दूरी भी नहीं मिलती जितना हमारी फसल का भाव है।"

क्या है प्याज़ की असल लागत?

एक सामान्य किसान प्याज़ की एक क्विंटल उपज पर लगभग 700–800 रुपये का खर्च करता है:

  • बीज, खाद, कीटनाशक: ₹300

  • सिंचाई व मजदूरी: ₹200

  • पैकिंग, ट्रांसपोर्ट: ₹150–200

कुल लागत: ₹700–₹800
नीलामी भाव: ₹200

नुकसान: ₹500–₹600 प्रति क्विंटल

यानी किसान जितना उगाता है, उससे ज़्यादा खर्च करता है और फिर भी उसे ‘सब्सिडी’ या ‘लाभकारी मूल्य’ का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है।

मंडी में निराशा का माहौल

मंडी में नीलामी के दौरान कई किसानों ने अपनी बोली तक वापस ले ली। कुछ ने गुस्से में प्याज़ की बोरियाँ वहीं फेंक दीं और कहा:
"अगर इतना ही भाव मिलना है, तो हम इसे जानवरों को खिला देंगे, लेकिन 200 में नहीं बेचेंगे।" 



प्रशासन क्या कर रहा है?

सरकारी एजेंसियों की मौजूदगी औपचारिक थी। पूछे जाने पर अधिकारी बोले:
"कीमतें बाजार की मांग और आपूर्ति पर निर्भर हैं। सरकार अपनी तरफ से खरीद केंद्र शुरू करने पर विचार कर रही है।"

पर सवाल यह है कि कब तक ‘विचार’ चलता रहेगा और किसान ‘बिचार’ में मरते रहेंगे?


चौथी अर्थव्यवस्था पर सवाल

जब देश के नेता गर्व से कहते हैं कि भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, तो क्या उसका कोई मतलब उस किसान के लिए है जिसे उसकी उपज का उचित मूल्य तक नहीं मिलता?

सवाल यह है:

  • क्या हम अन्नदाता को सिर्फ नारे और भाषण देंगे?

  • क्या हम किसानों को सिर्फ चुनावी मौसम में याद करेंगे?

 

जब किसान अपनी मेहनत का दाम पाने के लिए संघर्ष करता है, तब उसकी आंखों में आंसू सिर्फ प्याज़ काटने से नहीं, बल्कि अपमान और बेबसी से आते हैं।


 

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